नीति मार्ग नहीं है- गतांक से आगे



कनफ्यूशियस कुछ दिनों के लिए एक दफा मजिस्ट्रेट हो गया था। ज्यादा दिन नहीं रह सका। क्योंकि अच्छा आदमी मजिस्ट्रेट ज्यादा दिन नहीं रह सकता। मजिस्ट्रेट ज्यादा दिन वही रह सकता है जिसके पास कोई आत्मा न हो। कनफ्यूशियस मजिस्ट्रेट हो गया था, उसके पास आत्मा थी इसलिए पहले मुकदमे में ही सब गड़बड़ हो गई बात। दूसरा मुकदमा उसके सामने नहीं लाया जा सका, क्योंकि वह निकाल बाहर कर दिया गया।
मुकदमा आ गया था, एक साहूकार, जो उसके गांव का सबसे बड़ा साहूकार था, उसकी चोरी हो गई थी। कनफ्यूशियस के सामने मुकदमा आया। चोर पकड़ लिया गया था। चोरी में गई चीजें पकड़ ली गई थीं। मामला साफ था। सजा देनी चाहिए थी। कनफ्यूशियस ने सजा दी। लेकिन दोनों को सजा दे दी, साहूकार को भी और चोर को भी। छह-छह महीने की सजा दे दी।
साहूकार चिल्लाया कि मजाक करते हैं, किस कानून में लिखा है यह? और यह क्या पागलपन है, मुझे सजा देते हैं? कनफ्यूशियस ने कहा: तुम न होते तो यह चोर भी नहीं हो सकता था। तुम हो इसलिए यह चोर है। चोर बाई-प्रोडक्ट है। चोर तुम्हारी पैदाइश है। यह तुम्हारा पुत्र है चोर। तुम बाप हो, यह बेटा है। तुमने सारे गांव की संपत्ति इकट्ठी कर ली, चोरी नहीं होगी तो क्या होगा? सारे गांव की संपत्ति इकट्ठी हो गई एक तरफ, सारा गांव कंगाल हो गया, चोरी नहीं होगी तो क्या होगा? इस चोर का कसूर ज्यादा नहीं है, पूरा गांव चोर हो जाएगा धीरे-धीरे।
और यह हुआ है। सारी दुनिया चोर हो गई चिल्लाते-चिल्लाते कि चोरी मत करो। यह होगा। क्योंकि चोरी की बुनियाद तोड़ने के लिए धर्मग्रंथ कुछ भी नहीं कहते, शोषण को तोड़ने के लिए कुछ भी नहीं कहते। इसलिए चोरी तो बढ़ती जाएगी, एक दिन सारी दुनिया चोर होगी। यह होना मजबूरी है। कनफ्यूशियस को निकाल कर बाहर कर दिया गया कि यह मजिस्ट्रेट होने के काबिल नहीं, यह आदमी तो पागल है।
ढाई हजार साल हो गए कनफ्यूशियस को मरे हुए। अब तक भी हम उस स्थिति में नहीं आ पाए हैं कि कनफ्यूशियस को फिर से मजिस्ट्रेट बना दें। अब भी हम उस हालत में नहीं आ पाए। उस दिन की प्रतीक्षा करनी है अभी और जिस दिन कनफ्यूशियस को हम वापस मजिस्ट्रेट बना सकें कि अब फिर तुम मजिस्ट्रेट हो जाओ। लेकिन अभी भी आदमी उतनी समझ पर नहीं आ पाया।
समाज की व्यवस्था को जमाए रखने के लिए सारी नीति है। और समाज ने व्यवस्था कर रखी है। पुलिस, मजिस्ट्रेट, इनसे काम थोड़ा-बहुत चलता है, लेकिन कुछ चोर बहुत होशियार होते हैं, वे पुलिसवाले से भी बच जाते हैं, मजिस्ट्रेट से भी बच जाते हैं। क्योंकि आखिर मजिस्ट्रेट भी आदमी है, पुलिसवाला भी आदमी है। और आदमी की कमजोरियां हैं। वे बच जाते हैं। सबकी कमजोरियां हैं। तो जो बच जाते हैं उनके लिए क्या किया जाए? तो उनके लिए कांसियंस पैदा की है। कांस्टेबल बाहर, कांसियंस भीतर। पुलिसवाला बाहर और भीतर नैतिक बुद्धि। बचपन से पिला रहे हैं उनको चोरी मत करना, यह मत करना, वह मत करना, ताकि भीतर से भी एक घबड़ाहट पैदा हो जाए। बाहर के पुलिसवाले से बच जाएं तो भीतर के पुलिसवाले से न बच सकें। और ऊपर एक परमात्मा बिठाया हुआ है सुप्रीम कांस्टेबल, सबसे बड़ा पुलिसवाला, हेड कांस्टेबल। उसका डर है कि वह नरक में डाल देगा, सड़ा देगा। यह कर देगा, वह कर देगा।
समाज अपनी व्यवस्था को जमाए रखने के लिए सारी नैतिकता का जाल खड़ा किया है। इसका मतलब यह नहीं है कि मैं आपसे कह रहा हूं अनैतिक हो जाएं, मैं आपसे यह कह रहा हूं कि इस भांति आप नैतिक भी हो जाएं तो भी नैतिक नहीं होते, यह सब अनैतिकता है। अगर सच में ही नैतिक होना है तो धार्मिक होना पड़ेगा। धार्मिक हुए बिना कोई नैतिक नहीं होता। एक सामाजिक जाल का हिस्सा होता है, और समाज नैतिक व्यक्ति को आदर देता है, उसके अहंकार को तृप्ति देता है, उसी के बल पर उससे कुछ त्याग करवाता है। उसके अहंकार को फुसलाता है। उसको आदर देता है कि ये बहुत नैतिक पुरुष हैं, राष्टऱ्पतियों से जाकर उनको पद्मश्री और भारतरत्न की उपाधियां दिलवाता है कि ये बहुत अच्छे नैतिक पुरुष हैं, उसके अहंकार को, उसके अहंकार को पुष्टि दिलवाता है। ताकि उस अहंकार के प्रभाव में वह बेचारा थोड़ा त्याग करे, चोरी न करे, बेईमानी न करे। लेकिन यह व्यवस्था असफल हो गई है, क्योंकि वे सारे नैतिक पुरुष इस बात को अच्छी तरह समझ लेते हैं कि नैतिकता दिखलाओ इतना ही काफी है, होने की कोई खास जरूरत नहीं। और तब एक ढकोसला और एक झूठ पूरे समाज के जीवन को पकड़ लिया है।

(सौजन्‍य से : ओशो न्‍यूज लेटर)

2 comments:

Udan Tashtari said...

बढ़िया संदर्भ रहा. जय ओशो. जारी रहिये.

Arun sathi said...

बहुत बढ़िया-नैतिकता यही है आज, नियमित लेख नहीं मिल पाता हैं, ओशों के ध्यान शिविर अपने यहां लगाने के लिए क्या करना होगा।