'मैं' का ताला


मैं से बड़ी और कोई भूल नहीं। प्रभु के मार्ग में वही सबसे बड़ी बाधा है। जो उस अवरोध को पार नहीं करते, सत्य के मार्ग पर उनकी कोई गति नहीं होती।

एक साधु किसी गांव से गुजरता था। उसका एक मित्र-साधु भी उस गांव में था। उसने सोचा कि उससे मिलता चलूं। रात आधी हे रही थी, फिर भी वह मिलने गया। एक बंद खिड़की से प्रकाश को आते देख उसने उसे खटखटाया। भीतर से आवाज आई, 'कौन है?' उसने यह सोचा कि वह तो अपनी आवाज से ही पहचान लिया जावेगा, कहा, 'मैं।' फिर भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। उसने बार-बार खिड़की पर दस्तक दी उत्तर नहीं आया। ऐसा ही लगने लगा कि जैसे कि वह घर बिलकुल निर्जन है। उसने जोर से कहा, 'मित्र तुम मेरे लिये द्वार क्यों नहीं खोल रहे हो और चुप क्यों हो?' भीतर से कह गया, 'यह कौन ना समझ है, जो स्वयं को 'मैं' कहता है, क्योंकि 'मैं' कहने का अधिकार सिवाय परमात्मा के और किसी को नहीं है।'

प्रभु के द्वार पर हमारे 'मैं' का ही ताला है। जो उसे तोड़ देते हें, वे पाते हैं कि द्वार तो सदा से ही खुले थे!

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

1 comment:

Udan Tashtari said...

जय हो!

जय ओशो!

जय त्यागी जी!