चित्त की धूल



प्रत्येक व्यक्ति एक दर्पण है। सुबह से सांझ तक इस दर्पण पर धूल जमती है। और, जो इस धूल को जमते ही जाने देते हैं, वे दर्पण नहीं रह जाते। और, जैसा स्वयं का दर्पण होता है, वैसा ही ज्ञान होता है। जो जिस मात्रा में दर्पण है, उस मात्रा में ही सत्य उसमें प्रतिफलित होता है। एक साधु से किसी व्यक्ति ने कहा कि विचारों का प्रवाह उसे बहुत परेशान कर रहा है। उस साधु ने उसे निदान और चिकित्सा के लिए अपने एक मित्र साधु के पास भेजा और उससे कहा, 'जाओ और उसकी समग्र जीवन-चर्या ध्यान से देखो। उससे ही तुम्हें मार्ग मिलने को है।' वह व्यक्ति गया। जिस साधु के पास उसे भेजा गया था, वह सराय में रखवाला था। उसने वहां जाकर कुछ दिन तक उसकी चर्या देखी। लेकिन, उसे उसमें कोई खास बात सीखने जैसी दिखाई नहीं पड़ी। वह साधु अत्यंत सामान्य और साधारण व्यक्ति था। उसमें कोई ज्ञान के लक्षण भी दिखाई नहीं पड़ते थे। हां, बहुत सरल था और शिशुओं जैसा निर्दोष मालूम होता था, लेकिन उसकी चर्या में तो कुछ भी न था। उस व्यक्ति ने साधु की पूरी दैनिक चर्या देखी थी, केवल रात्रि में सोने के पहले और सुबह जागने के बाद वह क्या करता था, वही भर उसे ज्ञात नहीं हुआ था। उसने उससे ही पूछा। साधु ने कहा, 'कुछ भी नहीं। रात्रि को मैं सारे बर्तन मांजता हूं और चूंकि रात्रि भर में उनमें थोड़ी बहुत धूल पुन: जम जाती है, इसलिए सुबह उन्हें फिर धोता हूं। बरतन गंदे और धूल भरे न हों, यह ध्यान रखना आवश्यक है। मैं इस सराय का रखवाला जो हूं।' वह व्यक्ति इस साधु के पास से अत्यंत निराश हो अपने गुरु के पास लौटा। उसने साधु की दैनिक चर्या और उससे हुई बातचीत गुरु को बताई। उसके गुरु ने कहा, 'जो जानने योग्य था, वह तुम सुन और देख आये हो। लेकिन समझ नहीं सके। रात्रि तुम भी अपने मन को मांजो और सुबह उसे पुन: धो डालो। धीरे-धीरे चित्त निर्मल हो जाएगा। सराय के रखवाले को इस सबका ध्यान रखना बहुत आवश्यक है।' चित्त की नित्य सफाई अत्यंत आवश्यक है। उसके स्वच्छ होने पर ही समग्र जीवन की स्वच्छता या अस्वच्छता निर्भर है। जो उसे विस्मरण कर देते हैं, वे अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हैं।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

1 comment:

Udan Tashtari said...

हमेशा की ही तरह आभार और सबकी जय हो.