धूल का परदा


एक कोने में पड़ा हुआ बहुत दिनों का दर्पण मिला है। धूल ने उसे पूरा का पूरा छिपा रखा है। दिखता नहीं है कि वह अब दर्पण है और प्रतिबिंब को पकड़ने में समर्थ होगा। धूल सब-कुछ हो गयी है। और दर्पण न-कुछ हो गया है। प्रकटत: धूल ही है और दर्पण नहीं है। पर क्या सच ही धूल में छिपकर दर्पण नष्ट हुआ है? दर्पण अब भी दर्पण है, उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है। धूल ऊपर है और दर्पण में नहीं है। धूल एक परदा बन गयी है। पर परदा केवल आवेष्टिंत करता है, नष्ट नहीं। और इस पर्दे के हटते ही- जो है, वह पुन: प्रकट हो जाता है।
एक व्यक्ति से यह कहा है कि मनुष्य की चेतना भी इसी दर्पण की भांति ही है। वासना की धूल है, उस पर। विकारों का परदा है, उस पर। विचारों की परतें हैं, उस पर। पर चेतना के स्वरूप में इससे कुछ भी नहीं हुआ है।
वह वही है। वह सदा वही है। परदा हो या न हो, उसमें कोई परिवर्तन नहीं है। सब परदे ऊपर हैं, इसलिए उन्हें खींच देना और अलग कर देना कठिन नहीं है। दर्पण पर से धूल झाड़ने से ज्यादा कठिन चेतना पर से धूल को झाड़ देना नहीं है।
आत्मा को पाना आसान है, क्योंकि बीच धूल के एक झीने परदे के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। और परदे के हटते ही ज्ञात होता है कि आत्मा ही परमात्मा है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

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