मोक्ष की प्रवृत्ति नहीं


एक साधु कल कह रहे थे , ''मैं संसार की ओर ले जानेवाली प्रवृत्ति छोड़ चुका हूं, अब तो प्रवृत्ति मोक्ष की ओर है। यही निवृत्ति है। संसार की ओर प्रवृत्ति, मोक्ष के प्रति निवृत्ति है; मोक्ष के प्रति प्रवृत्ति संसार के प्रति निवृत्ति है।''
यह बात दिखने में कितनी ठीक और समझ-भरी मालूम होती है। कहीं चूक दिखाई नहीं देती। बिलकुल बुद्धि और तर्क-युक्त है, पर उतनी ही व्यर्थ भी है। ऐसे ही शब्दों के खेल में कितने ही लोग प्रवंचना में पड़े रहते हैं। बुद्धि और तर्क- आत्मिक जीवन के संबंध में कहीं भी ले जाते मालूम नहीं होते हैं। मैंने उनसे कहा, ''आप शब्दों में उलझ गये हैं। 'संसार की ओर प्रवृत्ति' का कोई अर्थ नहीं है। असल में प्रवृत्ति ही संसार है। वह किस ओर है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। बस, उसका होना ही संसार है। वह धन की ओर हो तो, वह धर्म की ओर हो तो- उसका स्वरूप एक ही है।''
प्रवृत्ति मनुष्य को अपने से बाहर ले जाती है। वह वासना है, वह फलासक्ति है, वह कुछ न होने की तृष्णा और दौड़ है। 'अ' 'ब' होना चाहता है! यह उसका रूप है। और जब तक कुछ होने की वासना है, तब तक वह 'जो है', उसका होना नहीं हो पाता है। इस 'है' का उद्घाटन ही मोक्ष है।
'मोक्ष' कोई वस्तु नहीं है, जिसे पाना है। वह वासना का कोई विषय नहीं है। इससे उसकी ओर प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। वह तो तब है, जब कोई प्रवृत्ति नहीं होती- मोक्ष की भी नहीं। तब जो होता है, उसका नाम मोक्ष है। इससे मोक्ष को पाना नहीं है, असल में पाना छोड़ना है और मोक्ष पा लिया जाता है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)

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